Tuesday, November 02, 2010

CWG 2010

पैसा लील गया खेल को
पीछे रह गये खिलाडी
बिना दौडे ही जीत गये
स्वर्न पदक कलमाडी

घोटलों का घोटाला है
राष्ट्र मंडल खेल
मुनाफ़े मे नेता गण
घाटे में भारतीय रेल

सबने खाया अपना हिस्सा
खुले आम थी लूट
वो कहतीं है मैं सच्ची हूँ
सब जाने है झूठ

शर्मसार देश हुआ
उनका झोला भारी
एक दूजे पे ढोलते रहे
वो अपनी जिम्मेवारी

लालच ने इंसान की
ऐसी मती मारी
गढ़े धन की खोज में
खुद गयी दिल्ली सारी

जिनको कुछ नही मिला
वो कर रहे हैं शोर
अपने हिस्से की चाह में
लगा रहें हैं जोर

जलती आग में विपक्ष
सेंक रहा है रोटी
अपने शासन में नही हुआ
ये कैसी किसमत फ़ूटी

जनता निपुंसक है वो
क्या कर लेगी
खबर पढेगी चाय के साथ
और काम पे चल देगी

एक और घोटाला होगा
लोग पुराना भूल जायेंगे
नेता खाते थे, खाते हैं
और खाते जायेंगे

Monday, October 04, 2010

Ghazal

आसान नहीं यूं तुमसे जुदा होना
कब तलक गैरों से दो चार होना ॥

महफ़िल में होता है आसान मगर
दुशवार है तन्हाई मे न बेकरार होना ॥

अपनी मर्जी से होतें नहीं है फ़ैसले
वरना कौन चाहेगा गम-ए-यार होना ॥

जिस्म दूर हैं हमारे तो क्या गम है
चाहत है दिल का नज़दीक तर होना ॥

Thursday, August 26, 2010

Our Baby

लफ़्ज़ तंग है, हौंठ खामोश
अपने अहसास को फ़िर कैसे बयां करूं

वो आया ज़िंदगी मे कुछ इस तरह
लगता है रोशन यह जहाँ करूं

वो पहली चीख ने उसकी, मुझे कामरान बना दिया
उस लम्हे को अब मैं रोज़ जिया करूं

छोटी उंगलियों से जब उसने छुआ मुझे
लगा दूर जमाने की तल्खियां करूं

उसने हमें एक नया आयाम दिया है
ना जाने कैसे उसका शुक्रिया करूं

वो इस तरह अपना बन गया
हर बशर को मैं पराया करूं

खुदा उसे बा सेहत उम्र दराज़ करे
मैं हर पल बस यही दुआँ करूं

Friday, August 20, 2010

पथिक

अब चलें अपनी राह
बहुत हुआ निर्देशित प्रवाह

ना जाने कहां विचरते रहे
अंजान वादीयों मे घूमते रहे
बिना किसी उद्देश्य के
चलती रही राह

सराय को घर समझने की
भूल होती रही अब तक
सहवासी अपने लगने लगे
रुक गया प्रवाह

अब हुआ अहसास, हूँ मे पथिक
निरंतर चलना ही मेरा कर्म है
पाकर रहूँगा लक्ष्य मेरा
हो चांहे कठिनांईया अताह

Tuesday, June 22, 2010

Ghazal no.11

Inspired by the ghazal "Dil-e-naadan tujhe hua kya hai ,
Aakhir is dard ki dawa kya hai"

फ़िरता है अकेला वो दर बदर
जानता नही की काफ़िला क्या है

लगता नही दिल किसी भी ज़ियाफ़त मे
इश्क किया तो इसमें खता क्या है

खोजता हूँ तुझे हर इंसान मे
तू ही बता दे कि तेरा पता क्या है

हर नेकी का अंजाम ग़म होता है
या इलाही ये तेरी अता क्या है

Friday, June 18, 2010

विनाश काले विपरीत बुद्धी

हमारी द्रष्टी सीमित है
लघु हमारे इरादे
बिल विद्युत खर्च का
कोरे कोरे वादे

Biscuit कम दाम के
Toilet paper सस्ते
हर किसी मांग पर
कोरा नमस्ते

कक्ष मे बैठकर
वो बनायें कैसी नीति
१०% मुद्रा स्फ़ीति
५% वेतन व्रद्धि

कर्मचारी से बढी
हो गयी है पैसे की माया
१ निपुण के बदले २ नवीन
खूभ उपाय अपनाया

एकाएक उपलब्धियों के पैमाने
बदल रहे है
हम उतक्रष्टता से अधिकता की
और बढ रहे है

प्रतिबद्धता माने शोषन सहन करो
मुल्य मतलब प्रश्न दहन करो
फ़िर भी अगर तुम्हे कौतुहलता सताये
तर्क परेशान करें,
भूल से भी व्यवस्था या नीतियों पे
कुछ बोल पढो,
तो यह तुमहारी विक्रत प्रवर्ति और प्रतिकारी
स्वरुप का सूचक होगा
योग्यता निर्धारन के समय साल भर किये
अच्छे काम से ज्यादा इसका भार होगा

यह कौन समझे की अगर
यही हाल रहा तो कैसे होगी व्रद्धी
ठीक कहा है किसी ने
"विनाश काले विपरीत बुद्धी"
"विनाश काले विपरीत बुद्धी"

Monday, June 14, 2010

A tribute to Ghalib

Inspired by "Yeh na thi hamaari kismat ki visaale yaar hotaa"

होता हासिल हमें अंदाज़-ए-ग़ालिब अगर
जो भी निकलता मुंह से, वो लफ़्ज़ अशार होता

ग़म-ए-फ़ुऱकत से निज़ात मिलती
अगर मैं बादा-ख्वार होता

वो पुर्सिश-ए-हाल को आते
ऐ खुदा काश मैं बिमार होता

Friday, April 30, 2010

शोभा यात्रा

हमारे प्रदेश के महामंत्री ने सभी सेना पतियों कि आपातकालीन बैठक बुलवायी है , सुना है महाराजा के सबसे बडे और शक्तिशाली सिप्पहसालार पधार रहे है ।

महामंत्री : हम चाहते है के सभी जिले अपनी शक्ती का प्रदर्शन करे । हम चाहते है कि इस दरबार मे शक्ती कि शोभा यात्रा निकाली जाये । हमने इस वर्श जो जो नया किया है उसको बढा चढा के बताया जाये ।

सेना पती १ : पर महामन्त्री जी, हमने तो इस वर्ष कुछ नया किया ही नही. सार वर्ष तो हमने केवल राजनिति करने मे ही लगा दिया । हमारी फ़ौज तो वैसे भी राज्य कि सुरक्षा मे व्यस्त थी, उनसे कुछ नये कि उम्मीद करना गलत होगा.

महामंत्री : अब हमे आपको यह भी सिखाना पडेगा की पुराने काम को नया बनाके कैसे पेश किया जाता है. हम कुच नही जानते । काम किया हो या नही किया हो, शोभा यात्रा तो निकाली जायेगी । आखिर हमे भी उन्हे बताना है के हम भी कुछ कार्य करते है ।

सेना पति २ : पर महामन्त्री जी, इसमे तो हमें अपनी सारी फ़ौज लगानी पडेगी । छोटे बडे सभी सिपाही. फ़िर राज्या की सुरक्षा का ध्यान कौन रखेगा ।

महामंत्री : हमारी सलाह मानें तो बढे सिपाहियों को लगायें, इससे उनका मनोबल गिरेगा और वो दूसरे राज्यों कि और पलायन करेंगे । हम उनके बदले मे दो और सिपाही ले लेंगे । एक तीर से दो निशाना, कोई मुझसे सीखे ये तराना ।

सेना पति ३ :महाराज नीति तो अच्छी है, मगर हमें बढे सिपाहीयों कि आवश्यक्ता पडी तो ? वो तो हमारी शान हैं ।

महामंत्री : मुर्खों तुम्हारी इज़्ज़त इसमें है कि तुम्हारे पास कितने सिपाही हैं ना की कितने बढे है । वैसे भी हमारे राज्य मे सुरक्षा का काम ही कहाँ है । जाओ और शोभा यात्रा कि तैयारी करो ।

Wednesday, April 14, 2010

Cabin मे सवार इल्लियाँ

फ़सल थी लहलहाती हुई
धान से लबालब भरी ।
हर दिशा मे, हर द्रश्य मे
हर नेत्र मे, हरी हरी ॥

क्रषक था अभिमान मे
भूमी थी उर्वर बहुत ।
हर पसीने की बूंद से
मिलती उसे अधीक उपज ॥

वो करता कर्म जो
पैसा बन जाता ।
अधीक उपज कर वो
और अधीक यश कमाता ॥
-----------------------------------------------------------------------
ना जाने ये परिवर्तन कहाँ से आया
ना भूमी उर्वर रही और ना क्रषक सुखी
पसीना बहता रहा पर उपज नही बढी

सुना है कुछ परजीवियोँ ने हमला किया है
वो उपज तो खा ही गयें है, अब क्रषक को भी
नष्ट कर देंगे

अब पलायन ही एक मात्र उपाय है
सुना है दूसरे गाँव मे इस बार भी फ़सल अच्छी हुई है

Thursday, April 08, 2010

Resource

जीवन की है यही कथा हमारी
कोई ना समझा व्यथा हमारी

जिसने चाहा उपयोग किया
उत्पाद सी है अवस्था हमारी

संसाधन है हम यही सत्य है
हर पल बोध कराती व्यवस्था हमारी

हर शोषण को सहकर भी
कर्म करना है प्रथा हमारी
कर्म करना है प्रथा हमारी

Friday, March 05, 2010

रुकूँ कि चले जाऊँ

हर पल गीत यही गाऊँ
रुकूँ कि चले जाऊँ

नाम तो अच्छा है
पर काम कहाँ से लाऊँ
कब तलक अपने नाखुन
चबाऊँ

हर पल गीत यही गाऊँ
रुकूँ कि चले जाऊँ

औदा तो कमाल का है
साथ मे पैसा नही पाऊँ
अपनी आमदनी सबको बताते
शर्माऊँ

हर पल गीत यही गाऊँ
रुकूँ कि चले जाऊँ

संगी साथी सच्चे हैं
सच्चा अधिकारी कहां से लाऊँ
उसकी कूटनिति से मैं बहुत
घबराऊँ

हर पल गीत यही गाऊँ
रुकूँ कि चले जाऊँ

उनकी विक्रत मनसिकता से ग्रस्त
मेरी प्रवर्ती को कैसे बचाऊँ
जी करता है बहुत हुआ
अब चले जाऊँ

अब हर पल गीत यही गाऊँ
कब जाऊँ कहाँ जाऊँ
कब जाऊँ कहाँ जाऊँ

Wednesday, March 03, 2010

द्रश्यता (Visibility)

सोचा कुछ अच्छा लिखें, कुछ ऐसा जो मुझे सकारात्मक बनायें
जो मुझे आगे बढने की प्रेरणा दे ।

बीते कुछ दिनों से मैं दबाव में हूँ
नकारात्मक भावनाओं ने मुझे घेर लिया है ॥
ऐसा लगता है जैसे मुझमे ऊर्जा का अभाव हो
काम में मेरा मन नहीं लगता, गलत विचारों ने मेरे मन मे घर लिया है ॥

मैं अपने दुख से त्रस्त नहीं बल्कि दुसरों कि खुशी से परेशान हुँ
मैं इसलिये दुखी हूँ कि वो मुझसे ज्यादा कमाता है ।
वो जो काम मुझसे कम करता है, और आराम ज्यादा ,
परंतु वो शायद मेरे अधिकारी का लाडला है,
या शायद उसे मुहँ खोलना आता है ,
वो कम काम , थोडी फ़िक्र और जिक्र ज्यादा करता है ।

मुझे भी यह कला सिखनी होगी,
शायद इसिको द्रश्यता बनाना कहते है ।
किसी और के काम को छीन कर उसे अपना बताना
सब काम मे अपन नाम जोडना
बिना भाग लिये कार्य का श्रेय लेना
स्वयं को सर्व ज्ञानी समझना और
सबके समक्ष ऐसा व्यवहार करना ॥

अगर मुझे इस कपटी समाज में जीना है
अगर मुझे इस दौड मे जीतना है
तो मुझे द्रश्यता का सबक लेना होगा
यही मेरे आगे बढने की कूंजी है,
अगर इससे मेरा ईमान मरता है तो मरे
मेरी आत्मा पर बोझ रहे तो रहे
मुझे यह करना ही होगा
क्योंकि ईमान से पेट नहीं भरता ।

ऐ लेख मेरे, मुझे जीवन के इस सत्य का पुनः
बोध कराने हेतु तेरा शत शत धन्यवाद ॥

Sunday, February 14, 2010

उसके आने की खबर क्या आयी

उसके आने की खबर क्या आयी,
घर में खुशियों की हवा छायी,

मन मे कूदने लगे अरमान कईं
हर अरमान में कईं हवा आयी

परिजनो को संदेश पहुंच गया
कि उसके आने कि खबर आयी

माँ,बापू,सास ससुर,बुआ,काकी
सबसे आशिष और दुआँ आयी,

उसके आने की खबर क्या आयी,
घर में खुशियों की हवा छायी,

राय व सुझावों की कतार लग गयी
अपने अनुभव सुनाने की घटा छाई

पुराने कपडे परिचित दे गये,
घर से ताकत की दवा आयी

प्राय हर घर से चखने को कुछ आता
ना कोई शाम न्योतों के बिना आयी

उसे शायद ये पता ही नही
कि उसमे सिमट के एक दुनिया आयी

उसके आने की खबर क्या आयी,
घर में खुशियों की हवा छायी

Sunday, January 24, 2010

वहाँ किसी का प्रथम आना

वहाँ किसी का प्रथम आना
यहाँ हमारा जश्न मनाना
जैसे बेगानी शादी में
अब्दुल्ला दीवाना ।

अच्छा भोजन, थोडी मिठाई
चमाचम रोशनी
हमें क्रतिम खुशियों का
झुनझुना देना ।

यह धंधे का दबाव है,
या चाटुकारिता का प्रभाव
यूँ उनकी हर सफ़लता को
अपना बना लेना ।

यह हमारी कम रोशनी को छुपाने का
एक उपयुक्त उपाय है ।
चांद को अपना कहना
और सबको मुफ़्त कि चांदनी बाँटना ।

यह जश्न का नही, चिन्तन का समय है
यह छुपाने का नही, मंथन का समय है,

क्यों जश्न मनाने के लिये हमें
किसी और कि सफ़लता की आवश्यक्ता है ,
कि क्यों हमे किसी और की रोशनी चाहिये
हम स्वयं चांद क्यों नही हो सकते ।

आज हम इस गर्त मे इसलिये है कि
हम कबीर को भूल गये
निन्दक की महत्ता को भूल गये
डूब गये नितियों के समुद्र में
कर्मचारी की महत्ता को भूल गये ।
कर्मचारी की महत्ता को भूल गये ।

Thursday, January 21, 2010

फ़िर एक और नया साल आयेगा

कल फ़िर एक और नया साल आयेगा ।
आज से ही हम उसके स्वागत मे लग जायेंगे ॥

हम ये पूरी कोशिश करेंगे कि
संगीत के शोर मे हम उन चीखों को भुला दें ।
सिगरेट के धुएँ से हम उन तस्वीरों को धुन्धला कर दें ॥
मय के नशे मे उन यादों को उन ज़ख्मों को भुला दें ॥

और फ़िर तय्यार हो जायें नये साल के लिये ।

शायद इसमे कुछ गलत भी नही, शायद मैं भी यही करूंगा
मगर अब वक्त आ गया है इन ज़ख्मो को याद रखने का
उसे दिल मे संभाल के रखने का ।

बस यही कामना है कि ॥

संगीत के शोर से चीखों दबे ना,
सिगरेट के धुएँ से तस्वीरों और गहरी हों,
मय के नशे से ज़ख्म भूले ना ।


इसी कामना के साथ आपको और आपके परिवार को
नये वर्ष कि शुभकामनाएँ

एक बम ही तो फ़ूटा है

वो कहते है कि एक बम ही तो फ़ूटा है
वो कहते है कि कुछ गोलियाँ ही तो चली हैं
वो गलत भी क्या कहते है ये प्राय: ही तो होता है
हां गलत सिर्फ़ इतना है की हमें आदत हो गयी है

ना हमे पहले फ़र्क पडता था और ना अब पडता है
हम तब भी सुखी थे और आज भी है
हमे इससे क्या लेना देना की वो जो मरा वो कौन था
ना तो वो हमारे घर का था और ना हमारे शहर का

मुझे उसके मरने का दुख जरूर है
पर मेरा घर तो मुझे ही चलाना है
मैं सडक पर नहीं आ सकता,
मैं धरने पर नहीं बैठ सकता ।
हां मैं TV पर उसकी कहानी सुन
दर्द और रोष अवश्य प्रकट कर सकता हूँ ।

Drawing Room हो या शर्मा जी की पान की गुमटी
मैं अपना क्रोध विचारों के माध्यम से प्रकट करूंगा
मेरे विचार एक दिन जरूर क्रान्ती लायेंगे ।


मैं तो अपना कर्तव्य पूरा कर रहा हूँ
मैने जिने चुन के भेजा है अब उनकी बारी है
मेरे सर पर कोई भोज नही ।
मैं फ़िर सुखी हो सकता हूँ ॥
मैं फ़िर सुखी हो सकता हूँ ॥

ईष्या तू ना जा मेरे मन से

ईष्या तू ना जा मेरे मन से
जला ह्रदय के सुप्त दियों को अपने करधन से
ईष्या तू ना जा मेरे मन से

स्वप्न मुझे बहलाते नहीं,जश्न रास आते नहीं,
अब भोजिल जीवन को कोई संघर्ष उकसाते नहीं.
तू कर पैदा वो भाव जो हिला दे मुझको,
हो लगाव मुझे अपने जीवन से
ईष्या तू ना जा मेरे मन से

भटका बहुत अन्धेरों में,दिशाहीन सा मैं,
जीतता रहा खुद से, विपक्षहीन था मैं,
मिला ऐसे प्रतिपक्ष से, जो हरा दे मुझको,
हो भय मुझे उसके जीवन से
ईष्या तू ना जा मेरे मन से

जला ह्रदय के सुप्त दियों को अपने करधन से
ईष्या तू ना जा मेरे मन से

Wednesday, January 20, 2010

एक गज़ल

पूछ्ते है सब मुझसे नाम तेरा,
आकर ज़ुबान पर रह जाता है ।
डरते है तेरी रुसवाई से हम,
वरना कहदें सबको जी चाहता है ॥
किसी और के नाम से, कब तक उन्हे बुलाऊँगा,
कब तलक तसवीर को किस्से सुनाऊँगा ।
बहुत हुआ खेल लुका छिपी का,
मन हर पल यही सोचता है,
डरते है तेरी रुसवाई से हम,
वरना कहदें सबको जी चाहता है ॥
दिल मे रहता है ख्याल तुम्हारा,
बद से बदतर है अब हाल हमारा
क्या सुनायें अब हाल-ए-दिल अपनी जुबान से
कतरा कतरा यही दोहराता है