Wednesday, November 29, 2006

गज़ल 4

धीरे से खुलती है परत खू-ए-यार की
अगाज़-ए-उल्फ़त मे रुसवाई नही होती

आईना निभाता है बेबाक देहारी अपनी
अक्स से कभी हम-नवा-ई नही होती

जोश कायदा है जिंदगी का
बहते पानी मे कभी काई नही होती

आदमी का बस यही ग़म-ए-दौरान है
इश्क से कभी रिहाई नही होती

Tuesday, November 14, 2006

तसव्वुर

पल भर की खुशी और फिर ग़म का साया
ख्वाब में उनका आना और लौट जाना

दीद की खुशी और मलाल हिज़ाब का
यूं उनका नज़र उठाना और झुका जाना

वस्ल का अहसास और दर्द हिज़्र का
उनका हाथ मिलाना और चला जाना