Friday, March 05, 2010

रुकूँ कि चले जाऊँ

हर पल गीत यही गाऊँ
रुकूँ कि चले जाऊँ

नाम तो अच्छा है
पर काम कहाँ से लाऊँ
कब तलक अपने नाखुन
चबाऊँ

हर पल गीत यही गाऊँ
रुकूँ कि चले जाऊँ

औदा तो कमाल का है
साथ मे पैसा नही पाऊँ
अपनी आमदनी सबको बताते
शर्माऊँ

हर पल गीत यही गाऊँ
रुकूँ कि चले जाऊँ

संगी साथी सच्चे हैं
सच्चा अधिकारी कहां से लाऊँ
उसकी कूटनिति से मैं बहुत
घबराऊँ

हर पल गीत यही गाऊँ
रुकूँ कि चले जाऊँ

उनकी विक्रत मनसिकता से ग्रस्त
मेरी प्रवर्ती को कैसे बचाऊँ
जी करता है बहुत हुआ
अब चले जाऊँ

अब हर पल गीत यही गाऊँ
कब जाऊँ कहाँ जाऊँ
कब जाऊँ कहाँ जाऊँ

Wednesday, March 03, 2010

द्रश्यता (Visibility)

सोचा कुछ अच्छा लिखें, कुछ ऐसा जो मुझे सकारात्मक बनायें
जो मुझे आगे बढने की प्रेरणा दे ।

बीते कुछ दिनों से मैं दबाव में हूँ
नकारात्मक भावनाओं ने मुझे घेर लिया है ॥
ऐसा लगता है जैसे मुझमे ऊर्जा का अभाव हो
काम में मेरा मन नहीं लगता, गलत विचारों ने मेरे मन मे घर लिया है ॥

मैं अपने दुख से त्रस्त नहीं बल्कि दुसरों कि खुशी से परेशान हुँ
मैं इसलिये दुखी हूँ कि वो मुझसे ज्यादा कमाता है ।
वो जो काम मुझसे कम करता है, और आराम ज्यादा ,
परंतु वो शायद मेरे अधिकारी का लाडला है,
या शायद उसे मुहँ खोलना आता है ,
वो कम काम , थोडी फ़िक्र और जिक्र ज्यादा करता है ।

मुझे भी यह कला सिखनी होगी,
शायद इसिको द्रश्यता बनाना कहते है ।
किसी और के काम को छीन कर उसे अपना बताना
सब काम मे अपन नाम जोडना
बिना भाग लिये कार्य का श्रेय लेना
स्वयं को सर्व ज्ञानी समझना और
सबके समक्ष ऐसा व्यवहार करना ॥

अगर मुझे इस कपटी समाज में जीना है
अगर मुझे इस दौड मे जीतना है
तो मुझे द्रश्यता का सबक लेना होगा
यही मेरे आगे बढने की कूंजी है,
अगर इससे मेरा ईमान मरता है तो मरे
मेरी आत्मा पर बोझ रहे तो रहे
मुझे यह करना ही होगा
क्योंकि ईमान से पेट नहीं भरता ।

ऐ लेख मेरे, मुझे जीवन के इस सत्य का पुनः
बोध कराने हेतु तेरा शत शत धन्यवाद ॥