हमारे प्रदेश के महामंत्री ने सभी सेना पतियों कि आपातकालीन बैठक बुलवायी है , सुना है महाराजा के सबसे बडे और शक्तिशाली सिप्पहसालार पधार रहे है ।
महामंत्री : हम चाहते है के सभी जिले अपनी शक्ती का प्रदर्शन करे । हम चाहते है कि इस दरबार मे शक्ती कि शोभा यात्रा निकाली जाये । हमने इस वर्श जो जो नया किया है उसको बढा चढा के बताया जाये ।
सेना पती १ : पर महामन्त्री जी, हमने तो इस वर्ष कुछ नया किया ही नही. सार वर्ष तो हमने केवल राजनिति करने मे ही लगा दिया । हमारी फ़ौज तो वैसे भी राज्य कि सुरक्षा मे व्यस्त थी, उनसे कुछ नये कि उम्मीद करना गलत होगा.
महामंत्री : अब हमे आपको यह भी सिखाना पडेगा की पुराने काम को नया बनाके कैसे पेश किया जाता है. हम कुच नही जानते । काम किया हो या नही किया हो, शोभा यात्रा तो निकाली जायेगी । आखिर हमे भी उन्हे बताना है के हम भी कुछ कार्य करते है ।
सेना पति २ : पर महामन्त्री जी, इसमे तो हमें अपनी सारी फ़ौज लगानी पडेगी । छोटे बडे सभी सिपाही. फ़िर राज्या की सुरक्षा का ध्यान कौन रखेगा ।
महामंत्री : हमारी सलाह मानें तो बढे सिपाहियों को लगायें, इससे उनका मनोबल गिरेगा और वो दूसरे राज्यों कि और पलायन करेंगे । हम उनके बदले मे दो और सिपाही ले लेंगे । एक तीर से दो निशाना, कोई मुझसे सीखे ये तराना ।
सेना पति ३ :महाराज नीति तो अच्छी है, मगर हमें बढे सिपाहीयों कि आवश्यक्ता पडी तो ? वो तो हमारी शान हैं ।
महामंत्री : मुर्खों तुम्हारी इज़्ज़त इसमें है कि तुम्हारे पास कितने सिपाही हैं ना की कितने बढे है । वैसे भी हमारे राज्य मे सुरक्षा का काम ही कहाँ है । जाओ और शोभा यात्रा कि तैयारी करो ।
Friday, April 30, 2010
Wednesday, April 14, 2010
Cabin मे सवार इल्लियाँ
फ़सल थी लहलहाती हुई
धान से लबालब भरी ।
हर दिशा मे, हर द्रश्य मे
हर नेत्र मे, हरी हरी ॥
क्रषक था अभिमान मे
भूमी थी उर्वर बहुत ।
हर पसीने की बूंद से
मिलती उसे अधीक उपज ॥
वो करता कर्म जो
पैसा बन जाता ।
अधीक उपज कर वो
और अधीक यश कमाता ॥
-----------------------------------------------------------------------
ना जाने ये परिवर्तन कहाँ से आया
ना भूमी उर्वर रही और ना क्रषक सुखी
पसीना बहता रहा पर उपज नही बढी
सुना है कुछ परजीवियोँ ने हमला किया है
वो उपज तो खा ही गयें है, अब क्रषक को भी
नष्ट कर देंगे
अब पलायन ही एक मात्र उपाय है
सुना है दूसरे गाँव मे इस बार भी फ़सल अच्छी हुई है
धान से लबालब भरी ।
हर दिशा मे, हर द्रश्य मे
हर नेत्र मे, हरी हरी ॥
क्रषक था अभिमान मे
भूमी थी उर्वर बहुत ।
हर पसीने की बूंद से
मिलती उसे अधीक उपज ॥
वो करता कर्म जो
पैसा बन जाता ।
अधीक उपज कर वो
और अधीक यश कमाता ॥
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ना जाने ये परिवर्तन कहाँ से आया
ना भूमी उर्वर रही और ना क्रषक सुखी
पसीना बहता रहा पर उपज नही बढी
सुना है कुछ परजीवियोँ ने हमला किया है
वो उपज तो खा ही गयें है, अब क्रषक को भी
नष्ट कर देंगे
अब पलायन ही एक मात्र उपाय है
सुना है दूसरे गाँव मे इस बार भी फ़सल अच्छी हुई है
Thursday, April 08, 2010
Resource
जीवन की है यही कथा हमारी
कोई ना समझा व्यथा हमारी
जिसने चाहा उपयोग किया
उत्पाद सी है अवस्था हमारी
संसाधन है हम यही सत्य है
हर पल बोध कराती व्यवस्था हमारी
हर शोषण को सहकर भी
कर्म करना है प्रथा हमारी
कर्म करना है प्रथा हमारी
कोई ना समझा व्यथा हमारी
जिसने चाहा उपयोग किया
उत्पाद सी है अवस्था हमारी
संसाधन है हम यही सत्य है
हर पल बोध कराती व्यवस्था हमारी
हर शोषण को सहकर भी
कर्म करना है प्रथा हमारी
कर्म करना है प्रथा हमारी
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