Monday, December 01, 2008

आज फ़िर मै चुप हूँ

आज फ़िर एक हमला हुआ है,
आज फ़िर मै चुप हूँ ॥

सब मंजर देखे मैने, खून, चीख, मौत,
मगर मैं खडा रहा, निसहाय अकेला ।
किसी मदद की तलाश मे ॥

यही तो करता आया था मैं,
किसी का इंतज़ार, उस मसीहा का
जो मुझे इस उत्पात से बचाये ॥

अपने ज़ख्मो पे मरहम लगाकर,
अपने आँसूओं को पोंछकर
फ़िर निकल पडता था अपने काम पे ॥

मेरी इसी मजबूरी को ना जाने
लोगों ने क्या क्या नाम दिये
मगर मेरी दहशत भुलाने का यही ईलाज़ था ॥

पर क्या मैं उन हादसों को भुला पाया हूँ ?
क्या मैं उन ज़ख्मों को मिटा पाया हूँ ?
नही !!
यह हादसे होते रहेंगे और नासूर बन मेरे
ज़ख्मों को कुरेदते रहेंगे ?
कोई मसीहा मुझे बचाने नही आयेगा,
जो करना है मुझे ही करना है,

नही आज मैं चुप नही रहूँगा,
मैं बोलूंगा ।
मेरी आवाज़ ही मुझे बचायेगी ।
वो ही मेरी मसीहा है ॥
हाँ मुझे बोलना है ,
हाँ हमे बोलना है ।