आज फ़िर एक हमला हुआ है,
आज फ़िर मै चुप हूँ ॥
सब मंजर देखे मैने, खून, चीख, मौत,
मगर मैं खडा रहा, निसहाय अकेला ।
किसी मदद की तलाश मे ॥
यही तो करता आया था मैं,
किसी का इंतज़ार, उस मसीहा का
जो मुझे इस उत्पात से बचाये ॥
अपने ज़ख्मो पे मरहम लगाकर,
अपने आँसूओं को पोंछकर
फ़िर निकल पडता था अपने काम पे ॥
मेरी इसी मजबूरी को ना जाने
लोगों ने क्या क्या नाम दिये
मगर मेरी दहशत भुलाने का यही ईलाज़ था ॥
पर क्या मैं उन हादसों को भुला पाया हूँ ?
क्या मैं उन ज़ख्मों को मिटा पाया हूँ ?
नही !!
यह हादसे होते रहेंगे और नासूर बन मेरे
ज़ख्मों को कुरेदते रहेंगे ?
कोई मसीहा मुझे बचाने नही आयेगा,
जो करना है मुझे ही करना है,
नही आज मैं चुप नही रहूँगा,
मैं बोलूंगा ।
मेरी आवाज़ ही मुझे बचायेगी ।
वो ही मेरी मसीहा है ॥
हाँ मुझे बोलना है ,
हाँ हमे बोलना है ।
Monday, December 01, 2008
Monday, January 28, 2008
बू
वो सिर्फ़ हवा का झौंका नही,
वो सिर्फ़ बू का झरोंका नही,
वो एक जज़्बात का समंदर है,
बहता है अपने अंदाज़ से ।
भर देता है माहौल को हँसी से,
निकलता है जब ये अवाज़ से ।
होते नही हैं शब्द मगर,
लगते हैं कईं अनकहे अल्फ़ाज़ से ।
दवा सी है ताकत इसमे,
कोई जाके पूछे ये चारसाज़ से ।
बे-फ़िक्र उडाओ इसे जहां जी चाहे,
अच्छी बात क्या करनी लिहाज़ से ॥
वो सिर्फ़ बू का झरोंका नही,
वो एक जज़्बात का समंदर है,
बहता है अपने अंदाज़ से ।
भर देता है माहौल को हँसी से,
निकलता है जब ये अवाज़ से ।
होते नही हैं शब्द मगर,
लगते हैं कईं अनकहे अल्फ़ाज़ से ।
दवा सी है ताकत इसमे,
कोई जाके पूछे ये चारसाज़ से ।
बे-फ़िक्र उडाओ इसे जहां जी चाहे,
अच्छी बात क्या करनी लिहाज़ से ॥
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