रुख़ नहीं किया मयखाने की तरफ़ ,
कयीं दिनो से शराफ़त हो गयी है.
तेरे नाम के रखता हूं मे रोज़े,
अब खुदा से खिलाफ़त हो गयी है.
तुझको ज़हन मे रख़ के पडता हूं कलमा,
कुछ ऐसी मेरी इबादत हो गयी है.
तेरे अहद पे भरोसा कब तक करूं,
अब तो आजा कि कयामत हो गयी है.
सब रगं तेरे अहद के, मोहब्बत के धुल गये,
मुश्किलों कि जो एक बरसात हो गयी है.
ऎ खुदा तुझ पे भरोसा कैसे करूं,
तेरी भी इन्सानों सी जात हो गयी है.
तमाम शहर भटका फिर भी न कह सका,
एक इन्सान से मुलाकात हो गयी है.
1 comment:
"ay khudha tujh pe bharosa kaise karoon,
teri bhi insaano si jaat ho gayi hai."
too good Bharat Bhai
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