Sunday, September 24, 2006

विस्तार

काम की राह पर,कब तक चलोगे,
रती के मोह मे ,कब तक बहोगे.

स्पर्श से बढ़ी भी अनुभूति है,
एक ही अहसास पर कब तक जियोगे.

वक्ष और योनि से हटकर देखो
स्त्री मे अंग से परे भी कुछ है,

विस्त्रत करो सीमायें आंखो की,
दिशा बोध से कब तक वन्चित रहोगे.

तन से शुरु और तन पे समाप्त,
हर विचार कि इतनी हि परिधि है,

फ़ैलाओ हदें मस्तिष्क की,
ज्ञान को कब तक संकुचित रखोगे.

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