Wednesday, November 29, 2006

गज़ल 4

धीरे से खुलती है परत खू-ए-यार की
अगाज़-ए-उल्फ़त मे रुसवाई नही होती

आईना निभाता है बेबाक देहारी अपनी
अक्स से कभी हम-नवा-ई नही होती

जोश कायदा है जिंदगी का
बहते पानी मे कभी काई नही होती

आदमी का बस यही ग़म-ए-दौरान है
इश्क से कभी रिहाई नही होती

1 comment:

Unknown said...

har taraf bhid hai , shor hai , kahin tanhayi nahn...,

ab to kabr mein hi aaram karengey,waha koi ruswayi nahi...